योग की प्रणालियां

 

मानवी सत्ता के विभिन्न मनोवैज्ञानिक विभाजनों और उनपर आधारित प्रयत्न-सम्बन्धी इन अनेक उपयोगिताओं और उद्देश्यों के परस्पर-सम्बन्ध जिन्हें हमने प्राकृतिक विकासक्रम का संक्षेप में निरीक्षण करते हुए देखा है, हमें 'योग' की विभिन्न पद्धतियों के मूल सिद्धान्तों और प्रणालियों में बार-बार मिलेंगे । और, यदि हम उनके केन्द्रीय अभ्यासों और प्रधान उद्देश्यों को संयुक्त और समन्वित करना चाहें तो हम देखेंगे कि अभी भी प्रकृति-प्रदत्त आधार ही हमारा स्वाभाविक आधार है और उनके समन्वय की शर्त भी ।

 

     एक दृष्टि से योग वैश्व प्रकृति की सामान्य क्रिया से आगे निकल जाता है और उसे पीछे छोड़कर ऊपर की ओर आरोहण करता है । कारण, वैश्व माता का उद्देश्य भगवान् से, अपनी क्रीड़ा और सृष्ट रूपों में, मिलना है और वहीं उसे प्राप्त करना है । किन्तु योग के उच्चतम आरोहणों में वह अपनेसे आगे जाकर स्वयं अपने अन्दर ही भगवान को प्राप्त कर लेती है, इसमें वह विश्व से आगे निकल जाती है, पर साथ ही वैश्व क्रीड़ा से अलग भी रहती है । इसलिये कुछ लोग यह मानते हैं कि यह योग का केवल उच्चतम उद्देश्य ही नहीं है, बल्कि एकमात्र सच्चा या वांछनीय उद्देश्य भी है ।

 

     किन्तु, जिस वस्तु का निर्माण प्रकृति ने अपने विकास-क्रम में किया है उसीके द्वारा वह सदा अपने विकासक्रम से आगे भी निकल जाती है । वैयक्तिक हृदय ही अपने उच्चतम और पवित्रतम भावों को ऊपर उठाकर परात्पर आनन्द या अनिर्वचनीय निर्वाण को प्राप्त करता है, वैयक्तिक मन ही अपनी सामान्य क्रियाओं को मानसिकता से परे के ज्ञान में परिवर्तित करके अनिर्वचनीय सत्ता के साथ अपने तादात्म्य को जान लेता है तथा अपने पृथक् अस्तित्व को उस परात्पर एकता में विलीन कर देता है । सदा व्यक्ति अर्थात् ' आत्मा' ही, जो अपने अनुभव में प्रकृति के द्वारा सीमित होता है और उसीकी रचनाओं के द्वारा कार्य करता है असीमित, मुक्त और परात्पर ' आत्मा' को प्राप्त करता है ।

 

     योगाभ्यास के सम्भव हो सकने के लिये क्रियात्मक दृष्टि से तीन विचार आवश्यक हैं । वस्तुत: इस प्रयत्न के लिये तीन पक्षों को अपनी सम्मति देनी होगी- भगवान्, प्रकृति और मानव-आत्मा, अधिक गहन भाषा में इन्हें 'परात्पर सत्ता ', 'वैश्व सत्ता' और व्यक्ति भी कह सकते हैं । यदि व्यक्ति और प्रकृति अपने भरोसे ही छोड़ दिये जाएं तो उनमेंसे एक दूसरे के साथ बंध जाता है और दूसरे की मन्द गति के कारण अधिक आगे बढ़ने में समर्थ नहीं होता । यहीं आकर किसी

 


 

परात्पर वस्तु की आवश्यकता पड़ती है जो उससे स्वतन्त्र और बड़ी हो, जो हमपर और उसपर भी कार्य कर सके और जो हमें ऊपर अपनी ओर खींच सके तथा प्रकृति से, उसकी अपनी प्रसन्नता से या बलपूर्वक, वैयक्तिक आरोहण के लिये उसकी स्वीकृति मांग सके ।

 

     यही सत्य योग के प्रत्येक दार्शनिक सिद्धान्त के लिये ईश्वर, भगवान् सर्वोच्च आत्मा या सर्वोच्च सत्ता के विचार को आवश्यक बना देता है । इसी सर्वोच्च सत्ता की प्राप्ति के लिये प्रयत्न किया जाता है और यही एक प्रकाशप्रद सम्पर्क तथा उसे प्राप्त करने की शक्ति प्रदान करता है । उतना ही सच्चा योग का वह पूरक विचार है जिसे भक्तियोग ने बार-बार लागू किया है अर्थात् यह विचार कि जिस प्रकार परात्पर भगवान् व्यक्ति के लिये आवश्यक हैं और व्यक्ति उसकी खोज करता है उसी प्रकार व्यक्ति भी एक प्रकार से भगवान् के लिये आवश्यक है और भगवान् उसकी खोज करते हैं । यदि भक्त भगवान् की खोज एवं अभिलाषा करता है तो भगवान् भी भक्त की खोज और अभिलाषा करते हैं । ज्ञान-प्राप्ति के अभिलाषी मानव-जिज्ञासु के बिना, ज्ञान के सवोंच्च विषय के बिना तथा व्यक्ति के द्वारा ज्ञान की वैश्व क्षमताओं के दिव्य प्रयोग के बिना 'ज्ञान-योग' का अस्तित्व नहीं हो सकता । भगवान् के मानव-प्रेमी के बिना, प्रेम और आनन्द के सर्वोच्च उद्देश्य के बिना तथा व्यक्ति के द्वारा आध्यात्मिक, भाविक और सौन्दर्यात्मक उपभोग की वैश्व क्षमताओं के दिव्य प्रयोग के बिना भक्तियोग का अस्तित्व नहीं हो सकता । मानव कार्यकर्ता के बिना, सर्वोच्च संकल्पशक्ति के बिना, समस्त कर्मों और यज्ञों के स्वामी के बिना और व्यक्ति के द्वारा शक्ति और कर्म की वैश्व क्षमताओं के दिव्य प्रयोग के बिना कोई कर्मयोग नहीं हो सकता । वस्तुओं का उच्चतम सत्य-सम्बन्धी हमारा बौद्धिक विचार कितना भी एकेश्वरवादी क्यों न हो, क्रियात्मक रूप में हमें इस सर्वव्यापक त्रिविध सत्ता को स्वीकार करना ही पड़ता है ।

 

     कारण, मानव और वैयक्तिक चेतना का दिव्य चेतना के साथ सम्बन्ध ही योग का सार-तत्त्व है । जो चीज विश्व की क्रीड़ा में अलग हो गयी थी उसका अपनी सच्ची सत्ता के साथ, अपने स्त्रोत और अपनी वैश्वता के साथ मेलइसीका नाम योग है । यह सम्बन्ध किसी भी समय तथा जटिल और गहनतः-संघटित चेतना के किसी भी स्थल पर हो सकता है, इसी चेतना को हम अपना व्यक्तित्व कहते हैं । यह भौतिक चेतना में शरीर के द्वारा चरितार्थ किया जा सकता है, प्राण में यह उन व्यापारों की क्रिया के द्वारा साधित होता है जो हमारी स्नायविक सत्ता की अवस्था और अनुभवों को निर्धारित करते हैं, जब कि मन में यह भाविक हृदय, सक्रिय संकल्पशक्ति अथवा विवेकशील मन के द्वारा साधित होता है, अधिकांश में यह 

 

   भक्त अर्थात् भगवान् का अनुरागी या प्रेमी; भगवान अर्थात् परमात्मा, प्रेम और आनन्द का स्वामी; त्रिविधसत्ता में से तीसरी सत्ता है, अर्थात् प्रेम का दिव्य प्रकट रूप |

 

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मानसिक चेतना के उसकी समस्त क्रियाओं में एक सामान्य रूपान्तर के द्वारा साधित होता है । यह सम्बन्ध वैश्व या परात्पर 'सत्य' और ' आनन्द' के प्रति सीधी जागृति के द्वारा और मन में केंद्रीय अहंभाव को परिवर्तित करके किया जा सकता है । इस सम्बन्ध को जिस स्थल पर हम स्थापित करना चाहेंगे वही हमारे योग का रूप निर्धारित करेगा ।

 

     कारण, यदि हम भारत में प्रचलित योग की प्रमुख प्रणालियों की विशिष्ट प्रक्रियाओं की जटिलताओं को एक ओर रखकर अपनी दृष्टि उनके केन्द्रीय विचार पर रखें तो हमें पता लगेगा कि वे एक ऐसे आरोहणकारी क्रम में अपने-आपको संगठित करती हैं जो सीढ़ी के सबसे निचले सोपान अर्थात् शरीर से आरम्भ होकर वैयक्तिक आत्मा और परात्पर और वैश्व सत्ता के अन्तर्वर्ती सीधे सम्बन्ध तक जाता है | हठयोग शरीर और प्राणिक क्रियाओं को पूर्णता और सिद्धि प्राप्त करने के अपने यन्त्रों के रूप में चुनता है, उसका सम्बन्ध स्थूल शरीर के साथ होता है । राजयोग मानसिक सत्ता को, उसके विभिन्न अंगों समेत, अपनी मुख्य शक्ति के रूप में चुनता है; वह सूक्ष्म शरीर पर अपने-आपको एकाग्र करता है । कर्म, प्रेम और ज्ञान का त्रिविध मार्ग, मानसिक सत्ता के एक भाग को, संकल्प-शक्ति, हृदय या बुद्धि को प्रारम्भिक बिन्दु के रूप में प्रयुक्त करता है और मुक्तिदायक 'सत्य', आनन्द और असीमता पाने के लिये उसका रूपान्तर करना चाहता है, ये सत्य, आनन्द और असीमता ही आध्यात्मिक जीवन के प्रारूप के अंग हैं । इसकी प्रणाली व्यक्ति के शरीर में मानव पुरुष और उस दिव्य 'पुरुष' के बीच प्रत्यक्ष आदान- प्रदान की होती है जो प्रत्येक शरीर में निवास करता है, पर फिर भी समस्त रूप और नाम से आगे निकल जाता है ।

 

     हठयोग का लक्ष्य प्राण और शरीर पर विजय प्राप्त करना है और जैसा कि हम देख चुके हैं, इनका संयोग अन्नकोष और प्राणकोष के रूप में स्थूल शरीर का निर्माण करता है; प्राण और शरीर का सन्तुलन ही मानवी सत्ता में प्रकृति के समस्त कार्यों का आधार है । प्रकृतिद्वारा स्थापित सन्तुलन सामान्य अहंकारयुक्त जीवन के लिये तो पर्याप्त है, किन्तु वह हठयोगी के उद्देश्य को पूरा करने के लिये काफी नहीं है । कारण, उसका हिसाब उतनी ही प्राणिक या सक्रिय शक्ति पर लगाया जाता है जितनी की आवश्यकता मानवजीवन के सामान्य काल में भौतिक इंजिन को चलाने के लिये या उन विभिन्न कार्यों को थोड़ा-बहुत यथार्थ रूप में करने के लिये पड़ती है जिनकी मांग उससे इस शरीर में निवास करनेवाला वैयक्तिक प्राण और उसे सीमित करनेवाली जगत्-परिस्थिति करते हैं । अतएव हठयोग प्रकृति में शोधन करना चाहता है तथा एक ऐसा अन्य सन्तुलन स्थापित करना चाहता है जिसके द्वारा यह भौतिक ढांचा प्राण की वृद्धिशील प्राणिक या सक्रिय शक्ति के वेगवान् प्रवाह का सामना करने में समर्थ हो जायगा; यह शक्ति अपनी मात्रा और वेग में वस्तुतः

 

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अनिश्चित और असीमप्राय है । प्रकृति में यह सन्तुलन प्राण की एक सीमित मात्रा और शक्ति के मूर्तीकरण पर आधारित है । इससे अधिक शक्ति को व्यक्ति अपने व्यक्तिगत और पैतृक अभ्यास के कारण न तो सह सकता है और न ही उसे प्रयुक्त या नियन्त्रित कर सकता है । हठयोग में यह सन्तुलन वैयक्तिक प्राण-शक्ति को व्यापक बनाने के लिये एक द्वार खोल देता है, वह शरीर में वैश्व शक्ति की एक बहुत ही कम रूढ़ और सीमित क्रिया को प्रवेश करने देता है तथा उसे अपने अन्दर धारण करके प्रयुक्त एवं नियन्त्रित करता है ।

 

     हठयोग की मुख्य क्रियाएं 'आसन' और 'प्राणायाम' हैं । अनेक आसनों अर्थात् बैठने की नियत स्थितियों के द्वारा वह पहले शरीर को चंचलता से मुक्त करता है । यह चंचलता इस बात का संकेत है कि वह उन प्राणिक शक्तियों को जो उसमें वैश्व जीवन के महासागर से प्रविष्ट हुई हैं कर्म और गति में चरितार्थ किये बिना अपने अन्दर धारण करने में असमर्थ है । इसके बाद हठयोग शरीर को एक असाधारण प्रकार का स्वास्थ्य, बल तथा नमनीयता प्रदान करता है तथा उसे उन रूढ़ अभ्यासों से मुक्त कर देता है जो उसे साधारण भौतिक प्रकृति से बांधे रखते हैं और उसे उसकी सामान्य क्रियाओं की तंग सीमाओं में घेरे रहते हैं । हठयोग की प्राचीन परंपरा में लोग सदा ही यह मानते थे कि यह विजय इतनी दूर तक ले जायी जा सकती है कि वह काफी हद तक गुरुत्व-शक्ति पर भी विजय प्राप्त कर ले । हठयोगी का अगला कदम है विभिन्न प्रकार की गौण परन्तु जटिल प्रक्रियाओं के द्वारा शरीर को समस्त अपवित्रताओं से मुक्त करना तथा स्नायविक प्रणाली को श्वास-प्रश्वास के उन व्यापारों की सहायता से निर्बाध रखना जो उसके अत्यधिक महत्त्वपूर्ण यन्त्र हैं । इन्हें प्राणायाम कहते हैं अर्थात् श्वास अथवा प्राणिक शक्ति का नियन्त्रण, क्योंकि श्वास लेना प्राणिक शक्तियों की मुख्य भौतिक क्रिया है । पहले यह शरीर की पूर्णता को संपन्न करता है : प्राणिक शक्ति भौतिक प्रकृति की बहुत- सी साधारण आवश्यकताओं से मुक्त हो जाती है और व्यक्ति बढ़िया स्वास्थ्य, लंबा यौवन और प्रायः ही असाधारण रूप से लंबी आयु प्राप्त कर लेता है । दूसरी ओर, प्राणायाम प्राणकोष में प्राणिक सक्रियता की सर्पाकार कुंडलिनी-शक्ति को जगा देता है तथा योगी के सामने चेतना के ऐसे क्षेत्र, अनुभव की ऐसी शृंखलाएं तथा असामान्य शक्तियां खोलकर रख देता है जो सामान्य मानव-जीवन में प्राप्त नहीं होतीं, साथ ही वह उन सामान्य शक्तियों एवं क्षमताओं को भी जो उसके पास पहले से हैं अतिशय सबल बना देता है । हठयोगी को कुछ और भी गौण प्रक्रियाएं सुलभ हैं जिनके द्वारा वह इन लाभों को स्थिर एवं पुष्ट कर सकता है ।

 

     हठयोग के परिणाम देखने में बहुत विशेष प्रकार के प्रतीत होते हैं तथा स्थूल अथवा भौतिक मन पर प्रबल प्रभाव डालते हैं । पर अन्त में यह प्रश्र उठ सकता है कि इतने बड़े परिश्रम के बाद हमें मिला क्या? भौतिक प्रकति का उद्देश्य

 

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अर्थात् केवल भौतिक जीवन की सुरक्षा, उसकी उच्चतम पूर्णता, बल्कि कुछ हद तक भौतिक जीवन का अधिक उपभोग करने की सामर्थ्यये वस्तुएं असाधारण मात्रा मैं प्राप्त की जा चुकी हैं । किन्तु हठयोग की दुर्बलता इस बात में है कि इसकी श्रमपूर्ण एवं कठिन प्रक्रियाएं इतने समय और शक्ति की मांग करती हैं तथा मनुष्य के सामान्य जीवन से उसे इतने पूर्ण रूप से अलग होने को बाध्य करती हैं कि जगत् के जीवन के लिये इसके परिणामों की उपयोगिता या तो प्रयोग में ही नहीं लायी जा सकती या फिर वह असाधारण रूप से सीमित होती है । यदि हम इस हानि के बदले अन्दर के एक अन्य जगत् में एक अन्य जीवन अर्थात् मानसिक या सक्रिय जीवन प्राप्त करना चाहें तो ये परिणाम दूसरी प्रणालियों अर्थात् राजयोग और तन्त्रों से भी बहुत कम श्रमपूर्ण साधनों द्वारा प्राप्त हो सकते हैं और इन्हें स्थिर रखने के लिये इतने कठोर नियमों का पालन भी नहीं करना पड़ता । बल्कि, इन भौतिक परिणामों अर्थात् प्राणिक शक्ति की बहुलता, लंबा यौवन, स्वास्थ्य तथा लंबी आयु का लाभ बहुत ही कम होगा, यदि हम सामान्य जीवन से अलग रहकर इन्हींकी खातिर इन्हें कंजूसों की तरह पकड़े रहें, इनका उपयोग न करें या इनका प्रयोग संसार के सामान्य कार्यों के लिये न करें । हठयोग बहुत बड़े परिणाम प्राप्त कर लेता है, परन्तु बहुत ही असाधारण मूल्य पर और बड़े छोटे-से उद्देश्य की खातिर ।

 

     राजयोग इससे ऊंची उड़ान भरता है । इसका उद्देश्य शारीरिक सत्ता की मुक्ति और पूर्णता को नहीं, बल्कि मानसिक सत्ता की मुक्ति और पूर्णता को नहीं, बल्कि मानसिक और पूर्णता को भी प्राप्त करना है तथा भाविक और संवेदनशील प्राण पर नियन्त्रण स्थापित करना एवं विचार और चेतना के समस्त यन्त्र पर प्रभुत्व पाना है । यह अपनी दृष्टि चित्त पर एकाग्र करता है जो मानसिक चेतना का एक ऐसा संघात है जिसमें ये समस्त क्रियाएं उठती हैं । जिस प्रकार हठयोग अपने भौतिक उपादान को शुद्ध एवं शांत करना चाहता है उसी प्रकार राजयोग भी मन को पवित्र और शांत बनाना चाहता है । मनुष्य की सामान्य अवस्था व्याकुलता और अस्तव्यस्तता की अवस्था है, यह एक ऐसा राज्य है जो या तो अपने-आपसे युद्ध करता रहता है या जो बुरी प्रकार शासित होता है । कारण, यहां स्वामी अर्थात् 'पुरुष' अपने मन्त्रियों अर्थात् अपनी शक्तियों के अधीन रहता है, बल्कि अपनी प्रजा के अर्थात् अपने सम्वेदन, भाव, कर्म और उपभोग के यन्त्रों के अधीन रहता है । वस्तुत: इस अधीनता के बदले अपने राज्य अर्थात् अपनी आत्मा के राज्य की स्थापना होनी चाहिये । अतएव सबसे पहले अव्यवस्था की शक्तियों पर व्यवस्था की शक्तियों को विजय प्राप्त करने के लिये सहायता मिलनी चाहिये । राजयोग की प्रारम्भिक क्रिया एक सतर्क आत्मनियन्त्रण की क्रिया होती है जिसके द्वारा निम्न स्नायविक सत्ता को सन्तुष्ट करनेवाली नियमरहित क्रियाओं के स्थान पर मन के अच्छे अभ्यास डाले जाते हैं ।

 

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सत्य के अभ्यास से, अहंकारयुक्त खोज के समस्त रूपों के त्याग से, दूसरों को हानि न पहुंचाने की प्रवृत्ति से और पवित्रता से तथा सतत ध्यान एवं उस दिव्य पुरुष की ओर आकर्षण से जो मानसिक राज्य का सच्चा स्वामी है, मन और हृदय की एक शुद्ध, प्रसन्न और निर्मल अवस्था स्थापित हो जाती है ।

 

     किन्तु यह केवल पहला कदम है । इसके बाद मन और इन्द्रियों की सामान्य क्रियाओं को पूर्ण रूप से शांत बना देना चाहिये जिससे आत्मा चेतना की उच्चतर स्थितियों तक आरोहण करने के लिये स्वतन्त्र हो सके और एक पूर्ण स्वाधीनता और आत्म-संयम के लिये आधार स्थापित कर सके; किन्तु राजयोग यह नहीं भूलता कि सामान्य मन की अयोग्यता इस बात में है कि वह स्नायविक प्रणाली और शरीर की प्रतिक्रियाओं के अधीन रहता है । इसीलिये वह हठयोग की पद्धति से उसके आसन और प्राणायाम के ढंग ग्रहण कर लेता है; किन्तु साथ ही वह प्रत्येक दशा में उनके अनेक और जटिल रूपों को एक ऐसी अत्यधिक सरल पर प्रत्यक्षत: प्रभावशाली प्रक्रिया में बदल देता है जो उसकी तात्कालिक उद्देश्य-प्राप्ति के लिये पर्याप्त होती है । इस प्रकार वह हठयोग की जटिलता और बोझिलपने से मुक्त रहकर उसकी प्रणालियों के द्रुत और शक्तिशाली प्रभाव का उपयोग कर लेता है, यह वह शारीरिक और प्राणिक व्यापारों के नियन्त्रण तथा उस आन्तरिक गतिशीलता को प्राप्त करने के लिये करता है जो एक प्रसुप्त पर असाधारण शक्ति से परिपूर्ण होती है; यौगिक भाषा में यह कुंडलिनी के नाम से प्रसिद्ध है अर्थात् अन्दर की कुंडलित और प्रसुप्त सर्पाकार शक्ति । जब यह हो जाता है तो यह प्रणाली और आगे बढ़ती है और अशान्त मन को पूर्णतया शान्त बना देती है तथा उसे समाधि तक पहुंचानेवाली क्रमिक अवस्थाओं में से गुजारते हुए मानसिक शक्ति की एकाग्रता के द्वारा उच्चतर स्तर तक ले जाती है ।

 

     'समाधि' में मन अपनी सीमित और सजग क्रियाओं से निकलकर चेतना की अधिक मुक्त और उच्च अवस्थाओं में प्रवेश करने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है । इसके द्वारा राजयोग दो उद्देश्य सिद्ध करता है; प्रथम तो वह एक ऐसे विशुद्ध मानसिक कर्म को अपने क्षेत्र के अन्दर ले आता है जो बाह्य चेतना की अस्तव्यस्तताओं से मुक्त होता है और तब वह वहां से उन उच्चतर अतिमानसिक स्तरों तक पहुंच जाता है जहां वैयक्तिक आत्मा सच्चे आध्यात्मिक अस्तित्व में प्रवेश करती है । साथ ही वह अपने विषय पर चेतना की उस मुक्त और एकाग्र शक्ति के प्रभाव को भी प्राप्त कर लेता है जिसे हमारा दर्शनशास्त्र प्रारम्भिक वैश्व शक्ति का नाम देता है और जिसे वह जगत् पर भागवत कार्य करने की प्रणाली मानता है, इसी शक्ति के द्वारा योगी, जो समाधि-अवस्था में उच्चतम अति-वैश्व ज्ञान और अनुभव को पहले से ही प्राप्त कर चुका होता है, जागृत अवस्था में भी उस ज्ञान को सीधा प्राप्त कर सकता है तथा उस आत्म-संयम का प्रयोग कर सकता है जो

 

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भौतिक जगत् में उसकी क्रियाओं के लिये लाभदायक या आवश्यक हो सकते हैं । कारण, राजयोग की प्राचीन प्रणाली का उद्देश्य केवल 'स्वराज्य' या आन्तरिक  'प्रभुत्व' या अपने ही प्रदेश के समस्त क्षेत्रों और क्रियाओं पर आन्तरिक चेतना के द्वारा पूर्ण नियन्त्रण ही नहीं था, बल्कि 'साम्राज्य' अर्थात् बाह्य या आन्तरिक चेतना के द्वारा अपनी बाह्य क्रियाओं और परिस्थितियों पर भी नियन्त्रण था ।

 

     हम देखते हैं कि जिस प्रकार हठयोग प्राण और शरीर के साथ व्यवहार करते हुए शारीरिक जीवन और उसकी सामर्थ्यों की असाधारण पूर्णता को अपना उद्देश्य मानता है तथा उससे भी आगे जाकर मानसिक जीवन के क्षेत्र में प्रवेश करता है, उसी प्रकार राजयोग जिसका क्षेत्र मन है मानसिक जीवन की क्षमताओं की असाधारण पूर्णता और विस्तार को अपना लक्ष्य मानता है और फिर उससे आगे जाकर आध्यात्मिक जीवन के क्षेत्र में प्रवेश करता है । किन्तु इस प्रणाली में एक कमजोरी है कि यह समाधि की असामान्य अवस्थाओं पर बहुत अधिक निर्भर रहती है । इस कमजोरी का एक परिणाम यह होता है कि मनुष्य भौतिक जीवन से अलग-सा हो जाता है जब कि वही उसका आधार और क्षेत्र है और उसीमें उसे अपनी मानसिक और आध्यात्मिक उपलब्धियां प्राप्त करनी है । विशेषकर, आध्यात्मिक जीवन इस प्रणाली में समाधि की अवस्था से अत्यधिक जुड़ा होता है । हमारा उद्देश्य आध्यात्मिक जीवन और उसके अनुभवों को पूर्णतया सक्रिय बनाना है तथा जाग्रत् अवस्था में, साथ ही क्रियाओं के सामान्य प्रयोग में भी उन्हें पूर्णतया उपयोगी बनाना है । किन्तु राजयोग में यह उद्देश्य हमारे समस्त जीवन में उतरकर उसे अधिकृत करने के स्थान पर हमारी सामान्य अनुभूतियों के पीछे गौण स्तर पर ही रुक जाता है ।

 

     उधर भक्ति, ज्ञान और कर्म का त्रिविध मार्ग उस प्रदेश को हस्तगत करने का प्रयत्न करता है जिसे राजयोग ने विजित नहीं किया । यह राजयोग से इस बात में भिन्न है कि यह समूची मानसिक प्रणाली की विस्तृत शिक्षा को पूर्णता की शर्त नहीं मानता और इसलिये उसमें व्यस्त नहीं होता, बल्कि यह कुछ केन्द्रीय तत्त्वों को अर्थात् बुद्धि, हृदय और संकल्प-शक्ति को अपने हाथ में ले लेता है और उन्हें उनकी सामान्य और बाह्य क्रियाओं और व्यापारों से परे हटाकर और भगवान् पर केन्द्रित कर रूपान्तरित करना चाहता है । यह उससे इस बात में भी भिन्न है कि यह मानसिक और शारीरिक पूर्णता के प्रति उदासीन है तथा केवल पवित्रता को भागवत सिद्धि की शर्त मानकर उसीको अपना उद्देश्य मानता है और यहां इसमें पूर्णयोग के दृष्टिकोण से एक दोष देखने में आता है । दूसरा दोष यह है कि जिस प्रकार आजकल उसका अभ्यास किया जाता है उसके अनुसार वह तीन समानान्तर मार्गों में से किसी ऐसे मार्ग को चुनता है जो अनन्य रूपसे और प्रायः ही दूसरे मार्गों का विरोधी होता है जब कि उसका कार्य एक पूर्ण दिव्य प्राप्ति में बुद्धि,

 

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हृदय और संकल्प-शक्ति का एक समन्वयात्मक सामंजस्य साधित करना था ।

 

     ज्ञान के मार्ग का उद्देश्य एकमेव और सर्वोच्च 'सत्ता' की प्राप्ति है | यह बौद्धिक चिन्तन अर्थात् विचार की प्रणाली के द्वारा यथार्थ विवेक-बुद्धि की ओर बढ़ता है । यह हमारी ऊपरी अथवा दृश्यमान सत्ता के विभिन्न तत्त्वों का निरीक्षण करता है तथा उनमें विभेद करता है और उन सबसे अलग रहता हुआ उनके परस्पर-विरोध और पार्थक्य के सिद्धान्त पर पहुंचता है । ये विभिन्न तत्त्व प्रकृति के अर्थात् दृश्यमान प्रकृति के अंगों के रूप में और माया अर्थात् बाह्य चेतना की रचनाओं के रूप में एक ही परम तत्त्व में उपस्थित हैं । इस प्रकार यह एकमेव 'सत्ता' के साथ अपना ऐसा यथार्थ तादात्म्य स्थापित कर सकता है जो न तो बदल सकता है और न नष्ट हो सकता है और जो न किसी एक तथ्य से या तथ्यों के संघात से निर्धारित किया जा सकता है । इस दृष्टिकोण से इस मार्ग का, जिसका साधारणतया अनुसरण किया जाता है, परिणाम यह होता है कि दृश्यमान लोकों को भ्रान्ति समझकर चेतना से बहिष्कृत कर दिया जाता है और व्यक्तिगत आत्मा सर्वोच्च सत्ता में अन्तिम रूप में लीन हो जाती है और फिर वहां से नहीं लौटती ।

 

     किन्तु यह एकाङ्गी अत्युच्च अवस्था ही ज्ञान के मार्ग का अकेला या अनिवार्य परिणाम नहीं । कारण, यदि इसका अनुसरण अधिक विस्तृत रूप से, और वैयक्तिक उद्देश्य से कम प्रेरित होकर किया जाय तो ज्ञान की पद्धति का परिणाम केवल परात्परता की प्राप्ति ही नहीं, बल्कि भगवान् के लिये वैश्व सत्ता पर सक्रिय विजय प्राप्त करना भी होगा । इस अतिक्रम का मुख्य अभिप्राय होगाअपनी सत्ता में ही नहीं, बल्कि सब सत्ताओं में सर्वोच्च सत्ता की प्राप्ति और अन्त में तो जगत् के दृश्यमान रूपों की भी प्राप्ति, पर यह होगी दिव्य चेतना की एक क्रीड़ा के रूप में ही; यह कोई ऐसी वस्तु नहीं होगी जो उसके सच्चे स्वभाव के सर्वथा प्रतिकूल हो । इस प्राप्ति के आधार पर एक और आगे की उन्नति भी सम्भव है, अर्थात् ज्ञान के सब रूप, चाहे वे कितने ही सांसारिक क्यों न हों, दिव्य चेतना की क्रियाओं में बदल जायेंगे; ये रूप ज्ञान के एक अखंड ध्येय को अनुभव करने के लिये प्रयुक्त किये जायेंगे और यह अनुभव उसके अपने अन्दर और उसके रूपों और प्रतीकों की क्रीड़ा में प्राप्त किया जायगा | इस प्रणाली का यह परिणाम निकल सकता है कि मानव बुद्धि और बोध का समस्त क्षेत्र ही दिव्य स्तर तक ऊंचा उठ जाय तथा आध्यात्मिक बनकर मनुष्य-जाति में ज्ञान के वैश्व प्रयास की सार्थकता को सिद्ध कर दे ।

 

     भक्ति का मार्ग सर्वोच्च 'प्रेम' और 'आनन्द' के उपभोग को अपना उद्देश्य मानता है और सामान्य रूप से सर्वोच्च प्रभु के व्यक्तित्व के विचार को स्वीकार करके उसका उपयोग करता है, साथ ही वह उन्हें दिव्य प्रेमी और विश्व का भोक्ता भी मानता है | तब जगत् उस प्रभु की क्रीड़ा के रूप में दिखाई देता है और

 

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     मानव-जीवन उसकी अन्तिम अवस्था जान पड़ती है, इसका अनुसरण लुका-छिपी अर्थात् आत्मगोपन और आत्मप्रकाश के विभिन्न रूपों के द्वारा किया जाता है । भक्तियोग मानव-जीवन के उन सब सामान्य सम्पर्कों का उपयोग करता है जिनमें भावावेश उपस्थित रहता है और जिन्हें वह अब अस्थिर सांसारिक सम्बन्धों पर लागू नहीं करता, बल्कि 'सर्व-प्रेम', 'सर्व-सुन्दर' और 'सर्व-आनन्दमय सत्ता' की प्रसन्नता के लिये प्रयुक्त करता है । पूजा और ध्यान केवल भगवान् के साथ सम्बन्ध स्थापित करने की तैयारी के लिये और साथ ही उसे तीव्रता प्रदान करने के लिये किये जाते हैं । यह योग समस्त भाविक सम्बन्धों के प्रयोग में बहुत उदार है; यहां तक कि भगवान् के प्रति शत्रुता और विरोध को भी, जो प्रेम के ही तीव्र, अधीर और विकृत रूप समझे जाते हैं, सिद्धि और मुक्ति का एक सम्भव साधन स्वीकार किया जाता है । इस मार्ग का सामान्यतया जैसा अभ्यास किया जाता है उसके अनुसार यह भी मनुष्य को जगत् के अस्तित्व से दूर, परात्पर और अति-वैश्व सत्ता में लीन होने की अवस्था तक ले जाता है जो अद्वैतवादी की लीनता से भिन्न प्रकार की होती है ।

 

     किन्तु यहां भी एकपक्षीय परिणाम अनिवार्य नहीं है । योग इस गलती को सर्वप्रथम इस प्रकार सुधारता है कि वह दिव्य प्रेम की क्रीड़ा को सर्वोच्च आत्मा और व्यक्ति के सम्बन्ध तक सीमित नहीं रखता, बल्कि उसे उस भावना और पारस्परिक पूजा तक ले जाता है जो सर्वोच्च प्रेम और आनन्द की उसी उपलब्धि के लिये एकत्र हुए भक्तों के बीच एक-दूसरे के प्रति पायी जाती है । एक अधिक सामान्य संशोधन वह और भी उपस्थित करता है कि प्रेम का दिव्य उद्देश्य समस्त सत्ताओं में, मनुष्य में ही नहीं बल्कि पशु में भी चरितार्थ हो जाता है, इसकी पहुंच सभी साकार पदार्थों तक सरलता से हो सकती है । हम देख सकते हैं कि भक्तियोग को इतने व्यापक क्षेत्र में प्रयुक्त किया जाता है कि वह मानव भाव, सम्वेदन और सौन्दर्यात्मक बोध के समस्त क्षेत्र को दिव्य स्तरतक, उसके आध्यात्मीकरण तथा मनुष्यजाति में प्रेम और आनन्द के लिये किये गये वैश्व प्रयत्न की सार्थकता तक ले जाता है ।

 

     कर्म के मार्ग का उद्देश्य है मनुष्य के प्रत्येक कर्म का सर्वोच्च संकल्पशक्ति के प्रति समर्पण । इसका आरम्भ कर्म के समस्त अहंभावयुक्त उद्देश्य के त्याग से और स्वार्थपूर्ण उद्देश्य की, किसी सांसारिक परिणाम की खातिर किये गये कर्म के त्याग से होता है । इस त्याग के द्वारा वह मन और संकल्पशक्ति को इतना शुद्ध कर लेता है कि हम सरलता से उस महान् वैश्व 'शक्ति' के प्रति सचेतन हो जाते हैं तथा उसे ही अपने समस्त कार्यों का सच्चा कर्त्ता मानने लगते हैं, साथ ही हम उस शक्ति के स्वामी को कर्मों का शासक और संचालक भी मानते हैं जब कि व्यक्ति केवल ऊपरी आवरण या बहाना होता है, एक यन्त्र या, अधिक निश्चित रूप में

 

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कहें तो, कर्म और दृश्यमान सम्बन्ध का एक चेतन केन्द्र मात्र होता है । कर्म का चुनाव और उसकी दिशा अधिकाधिक चेतन रूप में इसी सर्वोच्च संकल्पशक्ति और वैश्व 'शक्ति' पर छोड़ दिये जाते हैं । इसीको हमारे कर्म और हमारे कर्मों के परिणाम अन्तर में समर्पित कर दिये जाते हैं । इसमें लक्ष्य यह होता है कि आत्मा बाह्य प्रतीतियों और दृश्यमान व्यापारों की प्रतिक्रियाओं के बंधन से छूट जाय । दूसरे मार्गों की तरह कर्मयोग का उपयोग भी दृश्यमान अस्तित्व से मुक्ति पाने और सर्वोच्च सत्ता में प्रवेश करने के लिये किया जाता है । किन्तु यहां भी एकांगी परिणाम अनिवार्य नहीं । इस मार्ग का अन्त भी समस्त शक्तियों में, समस्त घटनाओं और समस्त कार्यों में दिव्य सत्ता का बोध और वैश्व कर्म में आत्मा का स्वतन्त्र और निरभिमान सहयोग हो सकता है । यदि इसका इस प्रकार अनुसरण किया जाय तो इसका परिणाम यह होगा कि समस्त मानव-संकल्प-शक्ति और क्रिया दिव्य स्तर तक पहुंच जायगी, आध्यात्मिक बन जायगी तथा मानव-सत्ता में स्वतन्त्रता, शक्ति और पूर्णता के लिये किये गये प्रयास के औचित्य को सिद्ध कर देगी ।

 

     हम यह भी देख सकते हैं कि यदि वस्तुओं को सर्वांगीण दृष्टि से देखा जाय तो ये तीनों रास्ते एक ही हैं । सामान्यतया दिव्य प्रेम को पूर्ण घनिष्ठता के द्वारा 'प्रिय ' का पूर्ण ज्ञान प्राप्त होगा, इस प्रकार वह 'ज्ञान' का मार्ग होगा । उसका ध्येय दिव्य सेवा भी होगा और तब वह 'कर्म' का मार्ग बन जायगा । इसी प्रकार, पूर्ण 'ज्ञान ' पूर्ण 'प्रेम' और ' आनन्द' को जन्म देगा तथा ज्ञात 'सत्ता' के 'कर्मो को पूर्ण रूप से स्वीकार कर लेगा । इसी प्रकार समर्पित 'कर्म' 'यज्ञ' के स्वामी के सम्पूर्ण प्रेम को तथा उसके मार्गों और उसकी सत्ता के गहनतम ज्ञान को जन्म देगा । इस त्रिविध मार्ग के द्वारा ही हम समस्त सत्ताओं में तथा 'एकमेव' की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति में उसके पूर्ण ज्ञान, प्रेम और सेवा तक पहुंचते हैं ।

 

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